शिव महिम्नः स्तोत्रम् | Shiv Mahimnah Stotram |

 

शिव महिम्नः स्तोत्रम्

शिव महिम्नः स्तोत्रम्



श्री पुष्पदंत उवाच
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः |
अथावाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः || १ ||

गन्धर्वराज पुष्पदन्त भगवान् शङ्करकी स्तुतिके उपक्रममें कहते हैं
' हे पाप हरण करनेवाले शङ्करजी,
आपकी महिमाके आर - पारके ज्ञानसे रहित सामान्य व्यक्तिके द्वारा की गयी आपकी स्तुति यदि आपके स्वरुप वर्णनके अनुरुप नहीं है तो ब्रह्मादि देवोंकी वाणी भी आपकी स्तुतिके अनुरुप नहीं है |
किंतु जब सभी लोग अपनी - अपनी बुद्धि के अनुसार स्तुति करते हुए
 उपालम्भके योग्य नहीं माने जाते हैं, तब मेरा भी स्तुति
करनेका प्रयास अपवादरहित ही होना चाहिये || १ ||

आपकी महिमा वाणी और मनकी पहुँचसे परे है |
आपकी उस महिमाका वेद भी चकित होकर नेति - नेति कहते हुए
आशयरुपमें वर्णन करते हैं |

अतीतः पन्थानं तव  च महिमा वाङ्गमनसयो-
रतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि |
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः || २ ||

फिर तो ऐसे अचिन्त्य महिमामय आप किसकी स्तुतिके विषय हो सकते हैं ?
अर्थात् किसीकी स्तुति तदर्थ समर्थ नहीं हो सकती,
क्योंकिआपके गुण न जाने कितने प्रकारके हैं अर्थात् अनन्त हैं |
फिर भी हे प्रभो,
नवीन परम रमणीय आपके रुपके विषयमें वर्णनके लिये किसका मन आसक्त नहीं होता और किसकी वाणी उसमें प्रवृत नहीं होती ?
अर्थात् सबके मन वचन सगुणरुपमें संलग्न हो जाते हैं,
 सभी अपनी वणिको प्रेरित करके वर्णनमें लगा देते हैं || २ ||


मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवत-
स्तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम् | 
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः 
पुनामित्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता || ३ || 

हे भगवान्, मधुसे सिक्त सी अत्यन्त मधुर एवं परम उत्तम 
अमृतरुप वेदवाणीकी रचना करनेवाले देवाधिदेव ब्रह्मदेवकी वाणी भी क्या 
आपके गुणोंको प्रकाशितकर आपको चमत्कृत कर सकती है ? 
फिर भी हे त्रिपुरारि, मेरी बुद्धि आपके गुणानुवादजनित पुण्यसे अपनी 
इस वणिको पवित्र करनेके लिये आपके गुण कथनके 
द्वारा स्तुतिके विषयमें उद्यत है || ३ || 


तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलकृत्
त्रयीवस्तुव्यस्तं तिसृषु गुणभिन्नासु तनुषु |
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः || ४ ||

हे वर देनेवाले शिवजी, आप विश्वका सृजन, पालन एवं संहार करते हैं,
ऐसा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद निष्कर्षरुपसे वर्णन करते हैं |
इसी प्रकार तीनों गुणोंसे विभिन्न त्रिमूर्तियों में बॅंटा हुआ जो
इस ब्रह्माण्डमें आपका वह प्रख्यात ऐश्वर्य है,
उसके विषयमें खण्डन करनेके लिये कुछ जडबुद्धि अकल्याणभागी
अभागों को मनोहर लगनेवाला पर वास्तवमें अशोभनीय या
हानिकारक व्यर्थका मिथ्याप्रलाप उठाते हैं || ४ ||


किमिहः किं कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च |
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः || ५ ||

हे वरद भगवन्, वह विधाता त्रिभुवनका निर्माण करता है तो उसकी कैसी चेष्टा होती है ? उसका स्वरुप क्या है ? फिर उसके साधन क्या हैं ? आधार अर्थात् जगत्का उपादान कारण क्या है ?इस प्रकारका कुतर्क, सब तर्कोंसे परे अचिन्त्य ऐश्वर्यवाले आपके विषयमें निराधार एवं नगण्य होता हुआ भी सांसारिक जनोंको भ्रममे डालनेके लिये कुछ मुर्खोंको वाचाल बना देता है || ५ ||

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगता
मधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति |
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे || ६ ||

हे देवी, श्रेष्ठ अवयववाले होते हुए भी ये लोक क्या बिना जन्मके ही हैं ?
क्या विश्वकी सृष्टि पालन संहार आदि क्रियाएँ बिना कर्ताके माने सम्भव हो सकती हैं ? या ईश्वरके बिना कोई सामान्य जीव ही अधिष्ठान या कर्ता हो सकता है ?
यदि असमर्थ जीव ही कर्ता है तो चौदह भुवनोंकी सृष्टिके लिये उसके पास क्या साधन हो सकता है ? यतः वे शङ्का करते हैं, अतः वे बड़े अभागी हैं || ६ ||

त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च |
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव || ७ ||

ऋक्, यजुः, साम ये वेद, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र, पाशुपतमत,
वैष्णवमत आदि विभिन्न मतमतान्तर हैं | इसमें यह मत उत्तम है,
हमारा मत लाभप्रद है,
इस प्रकारकी रुचियोंकी विचित्रतासे सीधे टेढ़े नाना मार्गोंसे
चलनेवाले साधकोंके लिये एकमात्र प्राप्तव्य आप ही हैं |
जैसे सीधे टेढें मार्गोंसे बहती हुई सभी नदियाँ अन्तमें समुद्रमें ही पहुँचती हैं,
उसी प्रकार सभी मतानुयायी आपके ही पास पहुँचते हैं || ७ ||

महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् |
सुरास्तां तामृद्धिं दधति च भवद्भ्रूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति || ८ ||

हे वरदानी शङ्कर ! बूढ़ा, बैल,खटियेका पावा, फरसा, चर्म, भस्म, सर्प, कपाल बस इतनी ही आपके कुटुम्ब पालनकी सामग्री है | फिर भी इन्द्रादि देवताओंने आपके कृपाकटाक्षसे ही उन अपनी विलक्षण समृद्धियों को प्राप्त किया है, किंतु आपके पास भोगकी कोई वस्तु नहीं है, क्योकिं विषयवासनारूपी मृगतृष्णा स्वरुपभूत चैतन्य आत्माराममें रमण करनेवालेको भ्रमित नहीं कर पाती है || ८ ||

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये |
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवञ्जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता || ९ ||

हे त्रिपुरारी ! कोई वादी इस सम्पूर्ण जगत्को ध्रुव कहता है, कोई इस सबको अध्रुव बताता है और कोई तो विश्वके समस्त पदार्थोंमें कुछ नित्य और कुछ अनित्य है ऐसा कहता है | उन सब वादोंसे आश्चर्यचकित सा मैं उन्हीं वादों से आपकी स्तुति करता हुआ लज्जित नहीं हो रहा हूँ, क्योंकि मुखरता धृष्ट होती ही है || ९ ||

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरी विरिञ्चो हरिरधः
परिच्छेत्तुं यातावनलमनलस्कन्धवपुषः |
ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगुणद्भ्यां गिरीश यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति || १० ||

हे गिरीश ! आपका जो लिङ्गकार तैजस रुप प्रकट हुआ उसके ओर छोरको जाननेके लिये ऊपरकी ओर ब्रह्मा तथा नीचेकी ओर विष्णु बड़े प्रयत्नसे गये, पर पार पानेमें असमर्थ रहे | तब उन दोनोंने श्रद्धा और भक्तिसे पूर्ण बुद्धिसे नतमस्तक हो आपकी स्तुति की | आप उन दोनोंके समक्ष स्वयं प्रकट हो गये |
हे भगवन् ! श्रद्धा भक्तिपूर्वक की गयी
आपकी सेवा क्या फलीभूत नहीं होती ? || १० ||

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद् बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान् |
शिरःपद्मश्रेणीरचितचरणाम्भोरुहबलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्त्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम् || ११ ||

हे त्रिपुरारि ! दशमुख रावणने तीनों भुवनोंका निष्कण्टक राज्य बिना प्रयत्न प्राप्तकर जो अपनी भुजाओंकी युद्ध करनेकी खुजलाहट न मिटा सका, यह आपके चरणकमलोंमें अपने दस सिररूपी कमलोंकी बलि प्रदान करनेमें प्रवृत्त आपमें अविचल भक्तिका ही प्रभाव है || ११ ||

अमुष्य त्वत्सेवासमधिगतसारं भुजवनं
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः |
अलभ्या पातालेऽप्यलसचलिताङ्गुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासिद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः || १२ ||

हे त्रिपुरारि ! आपकी सेवासे रावणकी भुजाओंमें शक्ति प्राप्त हुई थी | अभिमानमें आकर वह अपना भुजबल आपके निवास स्थान कैलासके उठानेमें भी तौलने लगा, पर आपने जो पैरके अँगूठेकी नोकसे जरासा कैलासको दबा दिया तो उस रावणकी प्रतिष्ठा पातालमें भी दुर्लभ हो गयी | प्रायः यह निश्चित है कि नीच व्यक्ति समृद्धिको पाकर मोहमें फँस जाता है || १२ ||

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सती
माधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयस्त्रिभुवनः |
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयो
र्न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः || १३ ||

हे वरदानी शङ्कर ! त्रिभुवनको वशवर्ती बनानेवाले बाणासुरने इन्द्रकी अपार सम्पत्तिको भी जो अपने समक्ष नीचा कर दिया, वह आपके चरणोंके शरणागत उस बाणासुरके विषयमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योकिं आपके समक्ष सिर झुकाना किसकी उन्नतिके लिये नहीं होता ? अर्थात् आपके चरणोंमें सिर झुकानेसे सबकी सब प्रकारकी उन्नति होती है || १३ ||

अकाण्डब्रह्माण्डक्षयचकितदेवासुरकृपा
विधेयस्यासीद्यस्त्रिनयनविषं  संहृतवतः |
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवनभयभङ्गव्यसनिनः || १४ ||

हे त्रिनेत्र शङ्कर ! समुद्रमन्थनसे उत्पन्न विषकी विषम ज्वालासे असमयमें ही ब्रह्माण्डके नाशके भयसे चकित देवों और दानवोंपर दयार्द्र होकर विषपान करनेवाले आपके कण्ठमें जो कालापन है
 वह क्या आपकी शोभा नहीं बढ़ा रहा है |
वस्तुतः संसारके भयको दूर करनेके स्वभाववाले महापुरुषोंका विकार भी प्रशंसनीय होता है || १४ ||

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः |
स पश्यन्निश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा नहि वशिषु पथ्यः परिभवः || १५ ||

हे जगदीश ! जिस कामदेवके बाण देव, असुर एवं नरसमूहरुप विश्वमें नित्य विजेता रहे, कहीं भी असफल होकर नहीं लौटते थे, वही कामदेव जब आपको अन्य देवताओंके समान समझने लगा, तब आपके देखते ही वह स्मृतिमात्र शेष रह गया और जितेन्द्रियोंका अपमान कल्याणकारी नहीं होता है || १५ ||

महि पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद्भुजपरिघरुग्णग्रहगणम् |
मुहुर्द्यौर्दौःस्थ्यं यात्यनिभृतजटाताडिततटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता || १६ ||

हे ईश ! जब आप ताण्डव करते हैं तब आपके पैरोंके आघात से पृथ्वी अचानक संशय को प्राप्त हो जाती है,
आकाशमण्डलके ग्रह, नक्षत्र,तारे आपके घूमते हुए भुजदण्ड से पीडित हो जाते हैं |
स्वर्ग आपकी दुःखद स्थितिको प्राप्त को जाता है |
यद्यपि आप जगत्की रक्षाके लिये ही ताण्डव करते हैं, फिर भी आपकी प्रभुता वाम हो ही जाती है || १६ ||

वियद्व्यापी तागगणगुणितफेनोद्गमरुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते |
जगद् द्वीपकारं जलधिवलयं तेन कृतमि
त्यनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः || १७ ||

हे जगदीश ! समस्त आकाशमें फैले तरोंके सदृश फेनकी शोभावाला जो गङ्गाजलका प्रवाह है, वह आपके सिरपर जलबिन्दुके समान दिखायी पड़ा और उसी जलबिन्दुने समुद्ररुपी करधनी के भीतर संसारको द्वीपके समान बना दिया | बस इसीसे आपका दिव्य शरीर सर्वोत्कृष्ट है, यह अनुमेय हो जाता है || १७ ||

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथचरणपाणिः शर इति |
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बरविधि
र्विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः || १८ ||

हे परमेश्वर ! त्रिपुरासुररुपी तृणको दग्ध करनेके इच्छुक आपने पृथ्वीको रथ, ब्रह्माको सारथि, सुमेरुपर्वतको धनुष, चन्द्र और सूर्यको रथके दोनों चक्के और चक्रपाणि विष्णुको बाण बनाया, यह सब आडम्बर करनेका क्या प्रयोजन था ? निश्चय ही अपने वशवर्ती खिलोनौंसे खेलती हुई ईश्वरकी बुद्धि पराधीन नहीं होती || १८ ||

हरिस्ते साहस्त्रं कमलबलिमाधाय पदयो
र्यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् |
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषा
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम् || १९ ||

हे त्रिपुरारि ! भगवन् विष्णुने आपके चरणोंमें एक हजार कमल चढ़ानेका संकल्प किया था |
उसमें जो एक कमल कम पड़ गया तो उन्होंने अपना ही नेत्रकमल उखाड़ कर चढ़ा दिया |
बस उनकी यही भक्तिकी पराकाष्ठा सुदर्शन चक्रका स्वरुप धारण कर त्रिभुवनकी रक्षाके लिये सदा जागरुक है || १९ ||

क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते |
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः || २० ||

हे त्रिपुरारि ! यज्ञादिके समाप्त हो जानेपर यज्ञकर्ताओंका यज्ञफलसे सम्बन्ध करनेके लिये आप तत्पर रहते हैं | कर्म तो करनेके बाद नष्ट हो जाता है |
अतः चेतन परमेश्वरकी आराधनाके बिना वह नष्ट कर्म फल देनेमें समर्थ नहीं होता है | इसलिये आपको यज्ञोंके फल देनेमें समर्थ दाता देखकर पुण्यात्मालोग वेदवाक्योंमे श्रद्धा विश्वास रखकर कर्ममें तत्पर रहते हैं || २० ||

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृता
मृषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुरगणाः |
क्रतुभ्रेषस्त्वत्तः क्रतुफलविधानव्यसनिनो
ध्रुवं कर्तुः श्रद्धाविधुरमभिचाराय हि मखाः || २१ ||

हे शरणदाता शङ्कर ! कार्यमें कुशल प्रजाजनोंका स्वामी प्रजापति दक्ष यज्ञका यजमान बना था | त्रिकालदर्शी ऋषिगण याज्ञिक थे |
देवगण यज्ञके सामान्य सदस्य थे |
फिर भी यज्ञफलके वितरणके व्यसनी आपसे ही यज्ञका विध्वंस हो गया |
अतः यह निश्चित है कि अश्रद्धासे किये गये यज्ञ कर्ताके विनाशके लिये ही 
सिद्ध होते हैं || २१ ||

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं  स्वां दुहितरं
गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा |
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः || २२ ||

हे स्वामि ! एक बार ब्रह्माने अपनी दुहितासे हठपूर्वक रमण करनेकी इच्छा की | वह लज्जासे मृगी बनकर भागी, तब ब्रह्मा भी मृग बनकर उसके पीछे दौड़े | आपने भी उन्हें दण्ड देनेके लिये मृगके शिकारीके वेगके समान हाथमें धनुष लेकर बाण चला दिया | स्वर्गमें जानेपर भी ब्रह्मा आपके बाणसे भयभीत हो रहे हैं | उन्हें बाणने आज भी नहीं छोड़ा है, अर्थात् ब्रह्मा मृगशिरा नक्षत्र बनकर भागे तो बाण आर्द्रा नक्षत्र बनकर आज भी पीछा करता है || २२ ||

स्वलावण्याशंसाधृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि |
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरतदेहार्धघटना
दवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः || २३ ||

हे त्रिपुरारि ! हे यमनियमपरायण ! हे वरद शङ्कर ! अपने सौन्दर्यसे शिवपर विजय प्राप्त कर लूँगा , इस सम्भावनासे हाथमें धनुष उठाये हुए कामदेवको सामने ही तुरंत आपके द्वारा तिनकेकी भाँति भस्म होता हुआ देखकर भी यदि देवी अर्धनारीश्वर के कारण आपको स्त्रीभक्त जानती हैं तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं, क्योंकि स्त्रियाँ अज्ञानी होती हैं || २३ ||

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचरा
श्चिताभस्मालेपः स्रगपि नृकरोटीपरिकरः |
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि || २४ ||

हे कामरिपु ! हे वरद शङ्करजी ! आप श्मशानोंमें क्रीडा करते हैं, प्रेत पिशाचगण आपके साथी हैं, चिताकी भस्म आपका अङ्गराग है, आपकी माला भी मनुष्यकी खोपड़ियोंकी है | इस प्रकार यह सब आपका अमङ्गल स्वभाव देखनेमें भले ही अशुभ हो, फिर भी स्मरण करनेवाले भक्तोंके लिये तो आप परम मङ्गलमय ही हैं || २४ ||

मनः प्रत्यक्चित्ते सविधमवधायात्तमरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमदसलिलोत्सङ्गितदृशः |
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान् || २५ ||

हे प्रभो ! यमीलोग शास्त्रोपदिष्ट विधिसे वायु रोककर हृदयकमलमें मनको बहिर्मुखी सभी वृत्तियोंसे शून्य करके अपने भीतर जिस किसी विलक्षण तत्त्वका दर्शन कर रोमाञ्चित हो जाते हैं और उनकी आँखे आनन्दके आँसुओंसे भर जाती हैं | उस समय मानो वे अमृतमे समुद्रके अवगाहन कर दिव्य आनन्दका अनुभव करते हैं, वह निर्गुण आनन्दस्वररुप ब्रह्म निश्चयरुपसे आप ही हैं || २५ ||

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह
स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च |
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्त्वं न भवसि || २६ ||

हे भगवन् ! परिपक्व बुद्धिवाले प्रौढ़ विद्वान् आप सूर्य हैं, आप चन्द्र हैं, आप पवन हैं, आप अग्नि हैं, आप जल हैं, आप आकाश हैं, आप पृथ्वी हैं, आप आत्मा हैं, इस प्रकारकी सीमित अर्थयुक्त वाणी आपके विषयमें कहते रहे हैं, पर हम तो विश्वमें ऐसा कोई तत्त्व नहीं देखते जो स्वयं साक्षात् आप न हों || २६ ||

त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरा
नकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति |
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्तं व्यस्तं त्वं शरणद गृणात्योमिति पदम् || २७ ||

हे शरण देनेवाले ! ओम् यह शब्द अपने व्यस्त अकार, उकार, मकाररुपसे तीनों वेद,  तीनों अवस्था, तीनों लोक, तीनों देवता, तीनों शरीर, तीनों रुप आदिके रुपमें आपका ही प्रतिपादन करता है तथा अपने अवयवोंके समष्टि रुप से निर्विकार निष्कल तीन अवस्था एवं त्रिपुटियोंसे रहित आपके तुरीय स्वरुपकी सुक्ष्म ध्वनियोंसे ग्रहणकर प्रतिपादन करता है || २७ ||

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहां
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम् |
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते || २८ ||

हे महादेव ! आपके जो आठ अभिधान भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम और ईशान हैं, उनमें प्रत्येकमें वेदमन्त्र भी पर्याप्त मात्रामें विचरण करते हैं और वेदानुगामी पुराण भी इन नामोंमें विचरते हैं, अर्थात् वेद पुराण सभी उन आठों नामोंका अतिशय प्रतिपादन करते हैं | अतः परम प्रिय एवं प्रत्यक्ष
समस्त जगत्के आश्रय आपको मैं साष्टाङ्ग प्रणाम करता हूँ || २८ ||

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमो
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः |
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमो
नमः सर्वस्मै ते तदिदमिति शर्वाय च नमः || २९ ||

हे अति निकटवर्ती और एकन्त वन विहारके प्रिय | आपको प्रणाम है | अति दूरवर्ती आपको प्रणाम है | हे कामारि | अति लघु आपको प्रणाम है | हे अति महान् | आपको प्रणाम है | हे त्रिनेत्र | वृद्धमत आपको नमस्कार है, अत्यन्त युवक | आपको प्रणाम है | सर्वस्वरुप ! आपको नमस्कार  है, परोक्ष, प्रत्यक्ष पदसे परे अनिर्वचनीय सबके अधिष्ठानस्वरुप ! आपको नमस्कार है || २९ ||

बहुलरजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबलतमसे तत्संहारे हराय नमो नमः |
जनसुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ  मृडाय नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय नमो नमः || ३० ||

विश्वकी सृष्टिके लिये रजोगुणकी अधिकता धारण करनेवाले ब्रह्मारुपधारी ! आपको बारम्बार नमस्कार है | विश्वके संहारके लिये तमोगुणकी अधिकता धारण करनेवाले हर रुपधारी ! आपको बारम्बार नमस्कार है | समस्त जीवोंके सुख के लिये सत्त्वगुणकी अधिकता धारण करनेवाले विष्णुरुपधारी मृडको बारम्बार नमस्कार है | स्वयं प्रकाश मोक्षके लिये त्रिगुणातीत, समस्त द्वैतसे रहित मङ्गलमय अद्वैत शिवको बारम्बार नमस्कार है || ३० ||

कृशपरिणति चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुणसीमोल्लङ्गिनी शश्वदृद्धिः |
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्यपुष्पोपहारम् || ३१ ||

हे वरद शिव ! कष्टोंके वशीभूत कहाँ तो यह मेरा चित्त और कहाँ सम्पूर्ण गुणोंकी सीमाके बाहर पहुँची सदा स्थायिनी आपकी ऋद्धि इसी भयसे ग्रस्त आपके चरणोंकी भक्तिने मुझे उत्साहित कर आपके चरणोंमें मुझसे वाक्यरुपी पुष्पोपहार, वाक्यकुसुमाञ्जलि, वाकयचयकी स्तुतिरुपी अञ्जलि समर्पित करायी है || ३१ ||

असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुर्वी |
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति || ३२ ||

हे ईश ! यदि काले पर्वतके समान स्याही  हो, समुद्रकी दावात हो, कल्पवृक्षकी शाखाओंकी कलम बने, पृथ्वी कागज बने और इन साधनोंसे यदि सरस्वती सर्वदा आपके गुणोंको लिखें तब वे आपके गुणोंका पार नहीं पा सकेंगी || ३२ ||

असुरसुरमुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दुमौले
र्ग्रथितगुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य |
सकलगणवरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानो
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार || ३३ ||

इस प्रकार शिवके सभी गणोंमें श्रेष्ठ पुष्पदन्त नामक गन्धर्वने दैत्येन्द्रों, सुरेन्द्रों एवं मुनीन्द्रोंसे पूजित, समस्त गुणोंसे परिपूर्ण होते हुए भी निर्गुण जगदीश्वर चन्द्रशेखर भगवान् शिवजीके इस सुन्दर स्तोत्रको बड़े छन्दोंमें बनाया || ३३ ||

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्धचित्तः पुमान् यः |
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथात्र
प्रचुरतरधनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च || ३४ ||

जो व्यक्ति पवित्र अन्तःकरण से परम भक्तिके साथ भगवान् शङ्करके इस प्रशंसनीय स्तोत्रका नित्य पाठ करता है,
वह इस लोकमें पर्याप्त धन एवं आयुको पाता है,
पुत्रवान् और यशस्वी होता है तथा
शिवलोकको प्राप्तकर शिवके समान रहता है || ३४ ||

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः |
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम् || ३५ ||

महेशसे बढ़कर कोई देवता नहीं है, शिवमहिम्नः स्तोत्रसे बढ़कर कोई स्तोत्र नहीं है | अघोरमन्त्रसे बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है, गुरुसे बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है || ३५ ||

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः |
महिम्नः स्तवपाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् || ३६ ||

मन्त्र आदिकी दीक्षा, दान, तप, तीर्थाटन, ज्ञान तथा यज्ञादि ये सब शिवमहिम्नः स्तोत्रकी सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकते है || ३६ ||

कुसुमदशननामा सर्वगन्धर्वराजः
शिशुशशिधरमौलेर्देवदेवस्य दासः |
स खलु निजमहिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्यदिव्यं महिम्नः || ३७ ||

बालचन्द्रको सिरपर धारण करनेवाले देवाधिदेव महादेवका पुष्पदन्तनामक एक दास, जो सभी गन्धर्वोंका राजा था, इन शिवजीके कोपसे अपने ऐश्वर्यसे च्युत हो गया था | उसने इस परम दिव्य शिवमहिम्नः स्तोत्रकी रचना की || ३७ ||

सुरवरमुनिपूज्यं स्वर्गमोक्षैकहेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्चलिर्नान्यचेताः |
व्रजति शिवसमीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् || ३८ ||

यदि मनुष्य हाथ जोड़कर एकाग्रचित्तसे देवताओं, मुनियोंके पूज्य, स्वर्ग एवं मोक्षको देनेवाले, पुष्पदन्तरचित इस अमोघ स्तोत्रका पाठ करता है तो वह किन्नरोंसे स्तुति प्राप्त करता हुआ भगवान् शिवके समीप पहुँच जाता है || ३८ ||

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्वभाषितम् |
अनौपम्यं मनोहारि शिवमीश्वरवर्णनम् || ३९ ||

पुष्पदन्तरचित यह सम्पूर्ण स्तोत्र पवित्र है, अनुपम है, मनोहर है, शिव है | इसमें ईश्वर का वर्णन है || ३९ ||

इत्येषा वाङ्गमयी पूजा श्रीमच्छङ्करपादयोः  |
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः || ४० ||

उस पुष्पदन्तने यह शिवमयी पूजा श्रीमान् शङ्करके चरणोंमें समर्पित की है | उसी प्रकार मैंने भी समर्पित की है | अतः इससे सदाशिव मुझपर प्रसन्न हों || ४० ||

तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर |
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः || ४१ ||

हे महेश्वर ! मैं आपको तत्त्व नहीं जानता, आप कैसे हैं, इसका ज्ञान मुझे नहीं है | आप चाहे जैसे हों, वैसे ही आपको बार बार प्रणाम है || ४१ ||

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः |
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवलोके महीयते || ४२ ||

जो मनुष्य शिवमहिम्नः स्तोत्रका पाठ एक समय, दोनों समय या तीनों समय करेगा, वह समस्त पापोंसे छुटकारा पाकर शिवलोकमें पूजित होगा || ४२ ||

श्रीपुष्पदन्तमुखपङ्कजनिर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण |
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः || ४३ ||

पुष्पदन्तके मुखकमलसे निकले हुए पापहारी शिवजीके प्रिय
इस स्तोत्रको कण्ठस्थ कर एकाग्रचित्त से पाठ करनेसे
समस्त प्राणियोंके स्वामी महेश बहुत प्रसन्न होते हैं || ४३ ||

|| इति शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम् ||
karmkandbyanandpathak

नमस्ते मेरा नाम आनंद कुमार हर्षद भाई पाठक है । मैंने संस्कृत पाठशाला में अभ्यास कर (B.A-M.A) शास्त्री - आचार्य की पदवी प्राप्त की हुईं है । ।। मेरा परिचय ।। आनंद पाठक (आचार्य) ( साहित्याचार्य ) ब्रह्मरत्न अवार्ड विजेता (2015) B.a-M.a ( शास्त्री - आचार्य ) कर्मकांड भूषण - कर्मकांड विशारद ज्योतिष भूषण - ज्योतिष विशारद

Post a Comment

Previous Post Next Post