रामस्तवराज | Ram Stavraj |

 

रामस्तवराज

श्री रामस्तवराज


विनियोग 
ॐ अस्य श्रीरामचन्द्रस्तवराजस्तोत्रमन्त्रस्य 
सनत्कुमारऋषिः अनुष्टुप्छंदः श्रीरामो देवता 
सीताबीजं हनुमान शक्तिः श्रीराम प्रीत्यर्थे 
पाठे विनियोगः || 


|| अथः ध्यानम् ||

वाणीवेदविधायकं स्वजनहृद्ध्वान्तादिविध्वंसकं |
वात्सल्यादिगुणार्णवं रघुवरं श्रीसीतया संयुतम् ||
श्यामं सर्वगतं शिवादिप्रणतं सद्वैभवं सिद्धिदं |
वन्दे चित्सुखविग्रहं भवहरं राजाधिराजं विभुम् || १ ||

धर्म हाथ जोड़कर इस प्रकारसे ध्यान करें |
जो वाणी और वेदके विधायक अपने भक्तोंके हृदयके अंधकारके नाशक,
वात्सल्यादि गुणोंके सागर, श्यामशरीर, सबमें व्याप्त, शिव आदिकोंसे प्रणाम किये, सच्चे वैभववाले सिद्धिके देनेवाले, चिदानंदरुप शरीरवाले, संसारका भय दूर करनेवाले,राजाओंके राजा सर्वव्यापक श्री जानकीजीसे संयुक्त है, उन श्री रामचन्द्रजीको मैं प्रणाम करता हूं || १ ||


|| अथ रामस्तवराज ||

|| श्रीसूत उवाच ||

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञं व्यास सत्यवतीसुतम् |
धर्मपुत्रः प्रहृष्टात्मा प्रत्युवाच मुनीश्वरम् || १ ||

श्रीसूतजी बोले, समस्त शास्त्रोंके तत्त्वको जाननेवाले सत्यवतीके पुत्र,
मुनियोंमे श्रेष्ठ श्रीव्यासजीसे धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिरजीने प्रसन्न होकर पूछा || १ ||


|| श्री युधिष्ठिर उवाच ||

भगवन् योगिनां श्रेष्ठ सर्वशास्त्रविशारद |
किं तत्त्वं किं परं जाप्यं किं ध्यानं मुक्तिसाधनम् ||
श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं ब्रूहि मे मुनिसत्तम || २ ||

श्रीमहाराज युधिष्ठिरजी बोले, भगवान् योगियिंमें श्रेष्ठ, हे समस्त शास्त्रोंके जाननेवाले, हे मुनियोंमे प्रधान कौनसा तत्त्व है, उनको सुननेकी मेरी लालसा है आप विस्तारपूर्वक कहिये || २ ||


|| श्री वेदव्यास उवाच ||

धर्मराज महाभाग शृणु वक्ष्यामि तत्त्वतः || ३ ||

श्रीवेदव्यासजी बोले, के महाभाग्यशाली धर्मराज युधिष्ठिर, ,
मैं तत्त्वको कहता हूं तुम सुनो || ३ ||

यत्परं यद्गुणातीतं यज्ज्योतिरमलं शिवम् |
तदेव परमं तत्त्वं कैवल्यपदकारणम् || ४ ||

दूसरे श्लोकमें कौनसा तत्त्व है इस प्रश्नका उत्तर देते हैं जो मन और वाणीके परे है, जो गुणोंसे अतीत जो स्वयं ज्योतिर्मय है, जो जन्म मरणके विकारसे रहित है, जो कल्याणकारक मङ्गलस्वरुप है, उसी परम तत्त्व को मुक्तिका देनेवाला जानो || ४ ||


श्रीरामेति परं जाप्य तारकं ब्रह्मसंज्ञकम् |
ब्रह्महत्यादिपापध्नमिति वेदविदो विदुः || ५ ||

१ सत्त्व रज और तम येही तीन गण हैं |
वेदके जाननेवाले कहते है कि, श्रीराम यही साक्षात् ब्रह्मरुपी जपने योग्य परम मंत्र है,
इसके जप करनेसे मनुष्य भवसागरसे पार हो जाता है,
और ब्रह्महत्यादिक पापोंसे छूट जाता है || ५ ||


श्रीराम रामेति जना ये जपन्ति च सर्वदा |
तेषां भुक्तिश्च मुक्तिश्व भविष्यति न संशयः || ६ ||

जो मनुष्य श्रीराम राम इनको निरन्तर जपते हैं वह इस लोकमें अनेक प्रकारके भोगोंको भोगकर अंतमे निःसन्देह मुक्तिपदको प्राप्त करते हैं || ६ ||


स्तवराजं पुरा प्रोक्तं नारदेव च धीमता |
तत्सर्वं संप्रवक्ष्यामि हरिध्यानपुरःसरम् || ७ ||

जो बुद्धिमान् श्री नारदजीने स्तवराजके प्रारंभमे हरिका ध्यान कहा है उसको भलीभांतिसे मैं तुमसे कहूंगा || ७ ||


तापत्रयाग्निशमनं सर्वाघौघनिकृन्तनम् |
दारिद्र्यदुःखशमनं सर्वसम्पत्करं शिवम् || ८ ||

वह स्तवराज तीनो तापोंकी अग्निको शांत करनेवाला, समस्त पापोंको काटनेवाला,
दरिद्ररुपी दुःखको दूर करनेवाला,
सर्वसम्पत्तिको करनेवाला और कल्याण करनेवाला है || ८ ||


विज्ञानफलदं दिव्यं मोक्षैकफलसाधनम् |
नमस्कृत्य प्रवक्ष्यामि रामं कृष्णं जगन्मयम् || ९ ||

विज्ञानरुपी फलको देनेवाले, मोक्षफलके साधन,
दिव्य शरीरसे जगतमें व्याप्त,
श्यामलशरीर श्री रामचन्द्रजीको प्रणाम करके कहता हूं || ९ ||


अयोध्यानगरे रम्ये रत्नमण्डपमध्यग |
स्मरेत्कल्पतरोर्मूले रत्नसिंहासनं शुभम् || १० ||

अयोध्यानगरमें, रत्नमण्डपके बीचमें, कल्पवृक्षके नीचे सुंदर रत्नोंसे जडे हुए सिंहासनका स्मरण करे || १० ||


तन्मध्येऽष्टदलं पद्मं नानारत्नैश्च वेष्टितम्  |
स्मरेन्मध्ये दाशरर्थि सहस्त्रादित्यतेजसम् || ११ ||

उस सिंहसानमें अनेक प्रकारके रत्नोंसे बने हुए अष्टदलवाले कमलपर विराजमान सहस्त्रों सूर्यके समान प्रतापशाली दशरथजीके पुत्र
श्रीरामचंद्रजीका स्मरण करें || ११ ||


पितुरंकगतँ राममिन्द्रनीलमणिप्रभम् |
कोमलाङ्गं विशालाक्षं विद्युद्वर्णाम्वरावृतम् || १२ ||

कोमल शरीरवाले, विशाल नेत्रवाले, बिजलीकी समान छबिवाले पितम्बरको धारण किये हुए अपने पिता महाराज दशरथजीकी गोदमें विराजमान भगवान् श्रीरामचन्द्रजी इन्द्रनील मणिकी समान शोभायमान हो रहे हैं || १२ ||


भानुकोटिप्रतीकाशं किरीटेन विराजितम् |
रत्नग्रैवेयकेयूरं रत्नकुण्डलमण्डितम् || १३ ||

गलेमें रत्नोंके कण्ठे पहने, भुजाओंमें रत्नजडे बाजूबन्ध पहने कानोंमें रत्नोंसे जडे
कुण्डलोंको पहने और मस्तकपर रत्नमय मुकुटको धारण किये करोडों सूर्योंके समान
प्रकाशमान हो रहे हैं || १३ ||


रत्नकंकणमञ्जीरकटिसूत्रैरलंकृतम् |
श्रीवत्सकौतुभोरस्कं मुक्ताहारोपशोभितम् || १४ ||

हाथोंमें रत्नजडित कंकण, चरणोंमें रत्नजडित आभूषण,
कमरमें सुवर्णकी तगडीं, वक्षस्थलमें दक्षिणावर्त्त पीत रोमावली चिह्न धारे,
कौस्तुभमणि और मोतियोंके हारसे शोभायमान हो रहे हैं || १४ ||


दिव्यरत्नसमायुक्तं मुद्रिकाभिरलंकृतम् |
राघवं द्विभुजं बालं राममीषत्स्मिताननम् || १५ ||

दिव्य रत्नोंसे युक्त अंगुठियोंको पहने, रघुवंशावतंस, दो भुजाओंवाले बालकरुपी
श्रीरामचन्द्रजीका मुखमण्डल मन्द मुस्कानसे पूर्ण है || १५ ||


तुलसीकुन्दमन्दारपुष्पमाल्यैरलंकृतम् |
कर्पूरागुरुकस्तूरीदिव्यगंधानुलेपनम् || १६ ||

कपूर अगर और कस्तूरी मिले दिव्य गंधवाले अंगरागको लगाये हुए तुलसी,
कुन्द और मन्दारके फूलोंकी मालासे अलंकृत हो रहे हैं || १६ ||


योगशास्त्रेष्वभिरतं योगीशं योगदायकम् |
सदा भरतसौमित्रिशत्रुध्नैरुपशोभितम् || १७ ||

योगशास्त्रमें लीन, योगियोंके स्वामी और योगसिद्धिके देनेवाले, सदा भरत,
लक्ष्मण और शत्रुध्नरुपी भ्राताओंसे शोभित रहते हैं || १७ ||


विद्याधरसुराधीशैः सिद्धगंधर्वकिन्नरैः |
योगीन्द्रैर्नारदाद्यैश्च स्तूयमानमहर्निशम् || १८ ||

विद्याधर, देवराज, सिद्ध, गन्धर्व, किन्नर और
नारद आदि योगीन्द्रगण दिनरात जिनकी स्तुति करते हैं || १८ ||


विश्वामित्रवसिष्ठादिमुनिभिः परिसेवितम् | 
सनकादिमुनिश्रेष्ठैर्योगिवृन्दैश्च सेवितम् || १९ ||

विश्वामित्र, वसिष्ठ और सनकादि श्रेष्ठ मुनिगण एवं योगीगण जिनकी
सेवा करते हैं || १९ ||


रामं रघुवरं वीरं धनुर्वेदविशारदम् |
मङ्गलायतनं देवं रामं राजीवलोचनम् || २० ||

योगिगण जिनमें रमण करते हैं, ऐसे रामचन्द्र लालकमलके समान
नेत्रवाले, परम कान्तियुक्त, मंगलके स्थान, रघुकुलमें श्रेष्ठ, विश्वविजयी और
धनुर्वेदमें प्रवीण हैं || २० ||


सर्वशास्त्रर्थतत्त्वज्ञमानन्दकरसुन्दरम् |
कौशल्यानन्दनं रामं धनुर्बाणधरं हरिम् || २१ ||

सब शास्त्रोंके मर्मको जाननेवाले, आनंदकारक, सुंदर कौशल्याजीके पुत्र
श्रीरामचन्द्रजी धनुषबाणको धारण किये सबके दुःखोंको हरनेवाले हैं || २१ ||


एवं संचिन्तयन्विष्णुं यज्ज्योतिरमलं विभुम् |
प्रहृष्टमानसो भूत्वा मुनिवर्यः स नारदः || २२ ||

इस प्रकारसे सर्वव्यापी, जन्ममरणसे रहित,
स्वयं प्रकाशमान विष्णुभगवान्का चिन्तवन करके प्रसन्नमन हो
मुनियोंमें श्रेष्ठ नारदजी || २२ ||


सर्वलोकहितार्थाय तुष्टाव रघुनन्दनम् |
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा चिन्तयन्नद्भुतं हरिम् || २३ ||

सबके हितके लिये और श्रीरामचन्द्रजीकी प्रसन्नताके लिये हाथ जोड
अञ्जलि बांधकर उन्हीं अद्भुत हरिका चिन्तवन करने लगे || २३ ||


यदेकं यत्परं नित्यं यदनन्तं चिदात्मकम् |
यदेकं व्यापकं लोके तद्रूपं चिन्तयाम्यहम् || २४ ||

जो एक है, जो सबसे परे है, जो अविनाशी है, जो अनंत है, जो चिदात्मक है
और जो एक होकरही सब लोकोंमें व्यापक है
उसी रुप का मैं चितवन करता हूं || २४ ||


विज्ञानहेतुं विमलायताक्ष प्रज्ञानरुपं स्वसुखै कहेतुम् |
श्रीरामचन्द्रं हरिमादिदेवं परात्परं राममहं भजामि || २५ ||

विज्ञानके हेतु निर्मल और विशाल नेत्रवाले, अखण्ड ज्ञानके स्वरुप, निज सुखके एक मात्र कारण, तीनों तापोंके नाशक जन्ममरणके दुःखको दूर करनेवाले |
आदि देव परात्पर श्रीरामचंद्रजीको मैं भजन करता हूं || २५ ||


कविं पुराणं पुरुषं पुरस्तात्सनातनं योगिनमीशितारम् |
अणोरणीयांसमनन्तवीर्यं प्राणेश्वरं राममसौ ददर्श || २६ ||

सर्वज्ञ, आदि, सर्वव्यापी, सनातन, योगी जगत्के स्वामी, अणुसे भी अणुके बीचमें स्थित, परमात्मा, अतुल पराक्रमी, प्राणेश्वर, श्रीरामचंद्रजीका नारदजी अपने सन्मुख दर्शन करते गये || २६ ||


|| श्री नारद उवाच ||

नारायणं जगन्नाथमभिराम जगत्पतिम् |
कविं पुराणं वागीशं रामं दशरथात्मजम् || २७ ||

नारदजी बोले नारायण, जगन्नाथ, परम सुंदर, जगत्पति, कवि, अनादि, वाणीके स्वामी, श्रीदशरथजीके कुमार, रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || २७ ||


राजराजं रघुवरं कौशल्यानन्दवर्द्धनम् |
भर्गं वरेण्य विश्वेशं रघुनाथं जगद्गुरुम् || २८ ||

राजराजेश्वर, रघुराज, कौशल्याजीके आनंदको बढानेवाले, तेजोमय वरने योग्य,
विश्वके स्वामी, जगत् के गुरु रघुकुलके मुकुटमणि, श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || २८ ||


सत्य सत्यप्रियं श्रेष्ठं जानकीवल्लभं विभुम् |
सौमित्रिपूर्वजं शांतं कामदं कमलेक्षणम् || २९ ||

सत्यरुपी, सत्यप्रिय, श्रेष्ठ, जानकीवल्लभ, सर्वव्यापी, श्रीलक्ष्मीजीके बड़े भ्राता, शांत, भक्तोंके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले, कमलनयन, रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || २९ ||


आदित्य रविमिशानं घृणिं सूर्यमनाभयम् |
आनन्दरुपिणं सौम्यं राघवं करुणामयम् || ३० ||

आदित्य, रवि, ईशान, घृणि, सूर्य, अनामय, आनंदरुपी सौम्यमूर्ति, करुणानिधान,
रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और
शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३० ||


जामदग्न्य तपोमूर्तिं रामं परशुधारिणम् || ३१ || 

जमदग्निमुनिके पुत्र तपोमूर्ति, फरसाधारी, परशुरामरुपी रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३१ ||


वाक्पतिं वरदं वाच्य श्रीपतिं पक्षिवाहनम् |
श्रीशार्ङ्गंधारिणं राम चिन्मयानन्दविग्रहम् || ३२ ||

वाणीके स्वामी, वर देनेवाले वन्दनीय, गरुडरुप चढनेवाले,
सुंदर शार्ङ्गनामक धनुषको धारण करनेवाले, चैतन्य और
आनंदरुपी रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको माणसे और शिरसे मैं
नित्य प्रणाम करता हूं || ३२ ||


हलधृग्विष्णुमीशानं बलरामं कृपानिधिम् || ३३ ||

हलको धारण करनेवाले, सर्वव्यापी, ईशान, कृपानिधान, बलरामरुपी रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३३ ||


श्रीवल्लभकृपानाथं जगन्मोहनमच्युतम् |
मत्स्यकूर्मवराहादिरुपधारिणमव्ययम् || ३४ ||

लक्ष्मीके प्यारे, कृपाके स्वामी, जगत्को मोहनेवाले, अविनाशी, मत्स्य, कूर्म और
वाराह आदि अवतारको धारण करनेवाले, सनातन रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३४ ||


वासुदेवं जगद्योनिमनादिनिधनं हरिम् |
गोविन्दं गोपतिं विष्णुं गोपीजनमनोहरम् || ३५ ||

वासुदेव, जगत्के उत्पन्न करनेवाले आदि अन्तसे रहित, सांसारिक दुःखोंके नाश करनेवाले, गोविन्द,इन्द्रियोंके वा गउओंके स्वामी सर्वव्यापी गोपियोंके मनको हरनेवाले श्रीकृष्णरुपी रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३५ ||


गोपालं गोपरीवारं गोपकन्यासमावृतम् |
विद्युत्पुञ्जप्रतिकाशं रामं कृष्णं जगन्मयम् || ३६ ||

गउऔंके पालनेवाले, गउऔंके परिवारवाले, गोपोंकी कन्याओंसे घिरे हुए,
बिजलीके ढेरकी समान प्रकाशमान, अन्तर्यामी, देवके रुपसे सबमें रहनेवाले, श्यामसुंदर, जगत्में व्याप्त, रघुकुलके मुकुटमणि,
श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३५ ||


गोगोपिकासमाकीर्णं वेणुवादनतत्परम् |
कामरुपं कलावन्तं कामिनिकामदं विभूम् || ३७ ||

गउओंसे और गोपियोंसे घिरे हुए बंशीके बजानेमें लीन कामदेवके समान, रुपवाले,
कलाओंसे युक्त, स्त्रियोंकी कामना एवं कामके उपभोगको देनेवाले, सर्वव्यापी,
रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और
शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३७ ||


मन्मथं मथुरानाथं माधवं मकरध्वजम् |
श्रीधरं श्रीकरं श्रीशं श्रीनिवासं परात्परम् || ३८ ||

मनको मथनेवाले, मथुराके स्वामी, माधव, कामदेवके समान लक्ष्मीको वाम भागमें विराजमान रखनेवाले, लक्ष्मी को बढानेवाले, लक्ष्मीके स्वामी, लक्ष्मीमें निवास करनेवाले, परेसे भी परे, रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३८ ||


भूतेशं भूपतिं भद्रं विभूतिं भूतिभूषणम् |
सर्वदुःखहरं वीरं दुष्टदानववैरिणम् || ३९ ||

पञ्चभूत महत्तत्त्व एवं समस्त प्राणिमात्रके स्वामी, पृथ्वीके स्वामी मंगलस्वरुप,
महत् ऐश्वर्यवाले ऐश्वर्यरूपी आभुषणको धारण करनेवाले, सबके दुःखोंको हरनेवाले, वीर दुष्ट दानवोंके नाश करनेवाले रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ३९ ||


श्रीनृसिंह महाबाहुं महान्तं दीप्ततेजसम् |
चिदानन्दमयं नित्यं प्रणवं ज्योतिरुपिणम् || ४० ||

श्रीनृसिंहस्वरुपी, महाभुजावाले, बडेसे भी बडे, प्रकाशित तेजवाले, चैतन्यमय,
आनंदस्वरुपी, सनातनसे विराजमान, ओंकाररुपी और ज्योतिःस्वरुपी
रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और
शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४० ||


आदित्यमण्डलगतं निश्चितार्थस्वरुपिणम् |
भक्तप्रियं पद्मनेत्रं भक्तानामीत्सितप्रदम् || ४१ ||
 
आदित्यमण्डलगतं निश्चित अर्थके स्वरुप भक्तोंके प्यारे वा भक्तोंको
प्यार करनेवाले, कोमलनेत्र, भक्तोंके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले,
रघुकुलके, मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और
शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४१ ||


कौशलेयं कलामूर्तिं काकुस्थं कमलाप्रियम् |
सिंहासने समासिनं नित्यव्रतमकल्मषम् || ४२ ||

अयोध्याके राजा, अपनी कलाओंसे मूर्ति धारण करनेवाले, इन्द्ररुपी वृषभ के कंधेपर विराजनेवाले, महाराजाके वंशमें उत्पन्न लक्ष्मीजीके प्यारे वा लक्ष्मीजीको प्यार करनेवाले, सिंहासनपर भलीभाँतिसे विराजमान, सत्यव्रतधारी, पापोंसे रहित रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और
शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४२ ||


विश्वामित्रप्रियं दान्तं स्वदारनियतव्रतम् |
यज्ञेशं यज्ञपुरुषं यज्ञपालनतत्परम् || ४३ ||

विश्वामित्रके प्यारे वा विश्वामित्र पर प्यार करनेवाले, मनके साथ समस्त इन्द्रयोंको जीतनेवाले, अपनीही स्त्रीमें नियमसे प्रीतिका व्रत करनेवाले, यज्ञके स्वामी, यज्ञपुरुष,
यज्ञके पालन करनेमें लीन, रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४३ ||


सत्यसंघं जितक्रोधं शरणागतवत्सलम् |
सर्वक्लेशापहरणं विभीषणवरप्रदम् || ४४ ||

सत्यप्रतिज्ञावाले, क्रोधको जीतनेवाले, शरण आये हुए को पुत्रके समान
रखनेवाले, सब प्रकारके क्लेशोंको हरनेवाले, विभीषणको वर देनेवाले, रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४४ ||


दशग्रीवहरं रुद्रं केशवं केशिमर्दनम् |
वालिप्रमथनं वीरं सुग्रीवेप्सितराज्यदम् || ४५ ||

रावणको मारनेवाले, रुद्रस्वरुपी, केशव ब्रह्मा शिवको उत्पन्न कर रक्षा करनेवाले, केशी नामक दैत्यको मारनेवाले, बालिको मारनेवाले, वीर,
सुग्रीवकी इच्छानुसार राज्य देनेवाले, रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको
मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४५ ||


नरवानरदेवैश्च सेवितं हनुमत्प्रियम् |
शुद्धसूक्ष्मं परं शांतं तारकं ब्रह्मरुपिणम् || ४६ ||

मनुष्य, वानर और देवताओंसे सेवित, हनुमानजीके प्यारे वा हनुमानजीपर प्यार करनेवाले, मायासे रहित, कठिनतासे ध्यान में आनेवाले, तारनेवाले, ब्रह्मके स्वरुप,
रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और
शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४६ ||


सर्वभूतात्मभूतस्थं सर्वाधारं सनातनम् |
सर्वकारणकर्त्तारं निदानं प्रकृतेः परम् || ४७ ||

समस्त प्राणियोंमें आत्मरुपसे विराजमान, समस्त जगत्के आधार, सनातन,
सब कारणोंके कर्त्ता, सबके आदि, मायासे परे, रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४७ ||


निरामयं निराभासं निरवद्यं निरञ्जनम् |
नित्यानन्दं निराकारमद्वैतं तमसः परम् || ४८ ||

रोगोंसे रहित, आभाससे रहित, दूषणोंसे रहित, मायाके मलिनतासे रहित सदा आनंदमय, निराकार, अद्वैत अज्ञानरुपी अंधकारसे परे,
 रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और
शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४८ ||


परात्परतरं तत्त्वं सत्यानन्दं चिदात्मकम् |
मनसाशिरसा नित्यं प्रणमामि रघूत्तमम् || ४९ ||

परब्रह्म, सत् चित आनंदस्वरुप,  रघुकुलके मुकुटमणि श्रीरामचंद्रजीको मनसे और शिरसे मैं नित्य प्रणाम करता हूं || ४९ ||


सूर्यमण्डलमध्यस्थं रामं सीतासमन्वितम् |
नमामि पुण्डरीकाक्षममेयं गुरुतत्परम् || ५० ||

श्रीजानकीजीके साथ सूर्यमण्डलमें विराजमान, कमलके समान नेत्रवाले, गुरुकी सेवा करनेवाले, अतुल प्रतापी श्रीरामचंद्रजीको मैं नमस्कार करता हूं || ५० ||


नमोस्तु वासुदेवाय ज्योतिषां पतये नमः |
नमोस्तु रामदेवाय जगदानन्दरुपिणे || ५१ ||

वासुदेवके लिये नमस्कार है, प्रकाशमानोंके स्वामीके लिये नमस्कार है,
जगत् के आनंदरुपी श्रीरामचंद्रजीके लिये नमस्कार है || ५१ ||


नमो वेदान्तनिष्ठाय योगिने ब्रह्मवादिने |
मायामयनिरस्ताय प्रपन्नजनसेविने || ५२ ||

वेदान्तमें निष्ठा रखनेवाले, ब्रहवादी, योगी, मायामय से निस्तार करने वाले, शरणमें आनेवालोंकी रक्षा करनेवाले श्रीरामचंद्रजीको नमस्कार है || ५२ ||


वन्दामहे महेश नं चण्डकोदण्डखण्डनम् |
जानकीहृदयानन्दचन्दनं रघुनन्दनम् || ५३ ||

महत् ऐश्वर्यवाले, शिवजीके धनुषको तोडनेवाले, जानकीजीके हृदयको आनंद देने वाले, चंदनके समान शीतल स्वभाववाले श्रीरघुनंदनजीको करते है || ५३ ||


उत्कुल्लामलकोमलोत्पलदलश्यामाय रामाय नः |
कामाय प्रमदामनोहरगुणग्रामाय रामात्मने ||
योगारुढमुनींद्रमानससरोहंसाय संसारविध्वंसाय |
स्फुरदोजसे रघुकुलोत्तंसाय पुंसे नमः || ५४ ||

पूर्ण खिले निर्मल कमलके दलके समान श्यामशरीरवाले के लिये अपने रुपमें सबको रमानेवाले रामके लिये, अपनी सबको प्रीति उत्पन्न करनेवाले कामके लिये,
अपने गुणोंसे युवती स्त्रियोंके मनको हरनेवालेके लिये, रमणीय क्रीड़ाकारी स्वभाववालेके लिये, योगके सिंहासनपर विराजमान मुनिराजोंके मनरुपी
मानससरोवर में हंसके समान विहार करनेवालेके लिये,
जन्ममरणरुपी संसारके दुःखको नाश करनेवालेके लिये,
परम प्रतापी बलवान्के लिये,
श्रीरघुकुलके मुकुटमणिके लिये और
परम पुरुषके लिये हमारा नमस्कार है || ५४ ||


भवोद्भवं वेदविदां वरिष्ठमादित्यचन्द्रानलसुप्रभावम् |
सर्वात्मकं सर्वगतस्वरुपं नमामि रामं तमसः परस्तात् || ५५ ||

जिनसे जगत् उत्पन्न हुआ है, जो वेदके जननेवालोंमें प्रधान हैं,
जो सूर्य चंद्र और अग्निके समान सुंदर प्रभावशाली हैं,
जो समस्त जगत्में व्याप्त हैं,
जो सकल चराचर जीवमात्रके स्वरुपमें प्रगट हैं,
जो अज्ञानसे परे हैं उन्हीं श्रीरामचंद्रजीको मैं प्रणाम करता हूं || ५५ ||


निरञ्जनं निष्प्रतिमं निरीहं निराश्रयं निष्कलमप्रपञ्चम् |
नित्यं ध्रुवं निर्विषयस्वरुपं निरन्तरं राममहं भजामि || ५६ ||

जो अविद्याकी मलिनतासे रहित, उपमासे रहित,
समस्तइच्छाओंसे रहित आश्रयसे रहित,
कमलाओंकी न्यूनाधिकतासे रहित, जगत्के प्रपंचोसे रहित,
उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकालमें नाशरहित है उन सत्य स्वरुपी समस्त
इन्द्रियोंके विषयोंसे रहित स्वरुपवाले श्रीरामचंद्रजीको मैं निरंतर भजता हूं || ५६ ||


भवाब्धिपोतं भरताग्रजं तं भक्तिप्रियं भानुकुलप्रदीपम् |
भूतत्रिनाथं भुवनाधिपत्यं भजामि रामं भवरोगवैद्यम् || ५७ ||

संसाररुपी सागरसे पार जानेकी नौका स्वरुप, भरतजीके बडे भाई,
भक्ति को प्रिय माननेवाले, सूर्यके कुलको प्रकाश करनेवाले, सृष्टि,
स्थिति और प्रलय कालमें सब प्राणियोंके स्वामी, समस्त भुवनोंके स्वामी,
संसार में आवागमनरुपी रोगके वैद्य,
अर्थात ज्ञान, वैराग्य और भक्तिरुपी ओषधीको सेवन कराकर मुक्ति देनेवाले
श्रीरामचंद्रजीको मैं भजता हूं || ५७ ||


सर्वाधिपत्यं समर ङ्गधीरं सत्यं चिदानंदमयस्वरुपम् |
सत्यं शिवं शांतिमयं शरण्यं सनातनं राममहं भजामि || ५८ ||

सबके स्वामी, सबमें समान प्रेम रखनेवाले बुद्धिमान्, सत्य,
चैतन्य आनंदमयस्वरुपी, सत्यप्रतिज्ञावाले, मङ्गलमय, शांतिमय, शरणमें आनेवालोंकी रक्षा करनेवाले, आदि, मध्य और अंतसे रहित
श्रीरामचंद्रजीको मैं भजता हूं || ५८ ||


कार्यक्रियाकारणमप्रमेयंकविं पुराणं कमलायताक्षम् |
कुमारवेद्यं करुणामयं तं कल्पद्रुपं (मं) राममहं भजामि || ५९ ||

कार्य और क्रिया कारण, असीम, सर्वज्ञ, आदिपुरुष, कमलके समान नेत्रवाले,
कुमार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार के जाननेवाले,
करुणानिधान, सबकी कामना पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षस्वरुपी श्रीरामचंद्रजी को मैं भजता हूं || ५९ ||


त्रैलोक्यनाथं सरसोरुहाक्षं दयानिधिं द्वंन्द्वविनाशहेतुम् |
महाबलं वेदनिधिं सुरेशं सनातनं राममहं भजामि || ६० ||

तीनों लोकोंके स्वामी, कमलके समान नेत्रवाले, दयाके समुद्र सुख दुःख,
पाप पुण्य आदि द्वंद्वोके नाशक, महाबली, वेदोंके निधि स्वरुप, देवताओंके स्वामी,
मध्य और अंतसे रहित श्रीरामचंद्रजीको मैं भजता हूं || ६० ||


वेदान्तवेद्यं कविमीशितारमनादिमध्यान्तमचिन्त्यमाद्यम् |
अगोचरं निर्मलमेकरुपं नमामि रामं तमसः परस्तात् || ६१ ||

वेदान्तके जाननेवाले सर्वज्ञा, सर्वेश्वर, आदि मध्य और अंतसे रहित,
चिंतवनमें न आनेयोग्य सबसे आदिपुरुष, साधारण नेत्रोंसे न दिखनेवाले,
निर्मल, अद्वितीय, अज्ञानसे परे श्रीरामचंद्रजीको मैं नमस्कार करता हूं || ६१ ||


अशेषवेदात्मकमादिसंज्ञमजं हरिं विष्णुमनन्तमाद्यम् |
अपारसंवित्सुखमेकरुपं परात्परं राममहं भजमि || ६२ ||

समस्त वेदस्वरुमी, समस्त संज्ञाके आदि, जन्मरहित, सांसारिक दुःखोंके नाशक,
सर्वव्यापी, अनंत, सबके आदि अपार ज्ञान और सुखसंपन्न एकरुप, परेसे परे
श्रीरामचंद्रजीको मैं भजता हूं || ६२ ||


तत्त्वस्वरुपं पुरुषं पुराणं स्वतेजसा पूरितविश्वमेकम् |
राजाधिराजं रविमण्डलस्थं विश्वेश्वरं राममहं भजामि || ६३ ||

परब्रह्मस्वरुप, परमपुरुष, सबके आदिभूत, अपने तेजसे विश्वको पूर्ण करनेवाके,
अद्वितीय, राजाधिराज, सूर्यमण्डलमें विराजमान, विश्वके स्वामी श्रीरामचंद्रजीको मैं भजता हूं || ६३ ||


लोकाभिरामं रघुवंशनाथं हरिं चिदानन्दमयं मुकुन्दम् |
अशेषविद्याधिपतिं कवीन्द्रं नमामि रामं तमसः परस्तात् || ६४ ||

समस्त लोकवासियोंको अपने रुप और गुणोंमे रमानेवाले, रघुकुलके स्वामी, सबके मन हरनेवाले, चैतन्य स्वरुप आनंदमय मुकुन्द, संपूर्ण विद्याओंके स्वामी, कवीश्वर, अज्ञानसे परे श्रीरामचंद्रजीको मैं नमस्कार करता हूं || ६४ 



योगीन्द्रसंधै शतसेव्यमानं नारायणं निर्मलमादिदेवम् |
नतोस्मि नित्यं जगदेकनाथमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् || ६५ ||

योगिराजोंद्वारा सैकडों प्रकारसे सेवित, नारायण, निर्मल, आदिदेव, अविनाशी,
जगत् के एकमात्र स्वामी, आदित्यके समान वर्णवाले, अज्ञानसे परे श्रीरामचंद्रजीको नमस्कार करता हूं || ६५ ||



विभूतिदं विश्वसृजं विराजं राजेन्द्रमीशं रघुवंशनाथम् |
अचिन्त्यमव्यक्तमनन्तमूर्तिं ज्योतिर्मयं राममहं भजामि || ६६ ||


ऐश्वर्यको देनेवाले, सृष्टिको रचनेवाले, विराट्रुपको धारण करनेवाले, राजाओंमें महाराजा कहानेवाले, ईश्वर, रघुकुलके स्वामी, चिंतवणमें न आनेवाले, मन वाणी और नेत्रोंसे प्रकट न दिखनेवाले, अनंत मूर्तियोंको धारण करनेवाले, ज्योतिर्मय श्रीरामचंद्रजीको मैं भजता हूं || ६६ ||


अशेषसंसारविकारहीनमादिस्तु संपूर्णसुखाभिरामम् |
समस्तसा क्षी तमसः परस्तान्नारायणं विष्णुमहं भजामि || ६७ ||

समस्त संसारिक विकारोंसे रहित, सबके आदि, संपूर्ण सुखोंके अभिराम,
सबके साक्षी, अज्ञानसे परे नारायण, सर्वव्यापि श्रीरामचंद्रजीको मैं भजता हूं || ६७ ||


मुनीन्द्रगुह्यं परिपूर्णमेकं कलांनिधिं कल्मषनाशहेतुम् |
परात्परं यत्परमं पवित्रं नमामि रामं महतो महान्तम् || ६८ ||

मुनीन्द्रों को भी दुर्बोध, अखण्ड अद्वितीय, कलानिधि, पापोंके नाशक, परेसे परे,
परम पवित्र, महत्से भी महत् श्रीरामचंद्रजी को मैं नमस्कार करता हूं || ६८ ||



ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च देवेन्द्रो देवतास्तथा |
आदित्यादिग्रहाश्चैव त्वमेव रघुनन्दन || ६९ ||

हे श्रीरघुनन्दन, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, देवता और
सूर्यादि नवग्रह आपहीके रुप हैं || ६९ ||


तापसा ऋषयः सिद्धाः साध्याश्च मरुतस्तथा |
विप्रा वेदास्तथा यज्ञाः पुराणं धर्मसंहिता || ७० ||

हे रामचंद्रजी, तपस्विगण, ऋषिगण, सिद्धगण, साध्यगण, मरुदगण वेदपाठी
और यज्ञ करानेवाले ब्राह्मण समस्त पुराण और
संपूर्ण धर्मकी संहिता आपहीके रुप हैं || ७० ||


वर्णाश्रमास्तथा धर्मा वर्णधर्मास्तथैवच |
यक्षराक्षसगन्धर्वा दिक्पाला दिग्गजादिभिः || ७१ ||

हे सीतापते, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारो वर्णोंके ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य वानप्रस्थ और संन्यास यह चारों आश्रम |
सत्य, तप, दया और दान इन चारों चरणवाले धर्म, उपरोक्त चारों वर्ण और
चारों आश्रमोंके धर्म, यक्ष, राक्षस, गंधर्व, दिक्पाल, दिशाओंके गज आदि
आपहीके रुप हैं |
कारण आपकीही सत्तासे सब विद्यमान हैं || ७१ ||


सनकादिमुनिश्रेष्ठास्त्वमेव रघुपुङ्गव |
वसवोष्टौ त्रयः काला रुद्रा एकादश स्मृताः || ७२ ||

हे रघुनाथजी, सनकादिक श्रेष्ठ मुनि, आठो वसु, तीनों काल और
एकादश रुद्र आपहीके रुप हैं || ७२ ||


तारका दशदिक् चैव त्वमेव रघुनन्दन |
सप्त द्वीपाः समुद्राश्च नगा नद्यस्तथा द्रुमाः || ७३ ||

हे रघुनंदनजी, तारागण, देशों दिशम सातों द्वीप, सातों समुद्र, सातों पर्वत,
सातों नदियें और सातों वृक्ष आपहीके रुप हैं || ७३ ||


स्थावरा जङ्गमाश्चैव त्वमेव रघुनायक |
देवतिर्यङ्ग मनुष्याणां दानवानां तथैव च || ७४ ||

हे रघुनायकजी, स्थावर और जंगम आपहीके रुप हैं,
एवं देवता, तिर्यक् मनुष्य और दानव आपहीके रुप हैं || ७४ ||


माता पिता तथा भ्राता त्वमेव रघुवल्लभ |
सर्वेषां त्वं परं ब्रह्म त्वन्मर्य सर्वमेव हि || ७५ ||

हे रघुवल्लभ, समस्त प्राणियोंके माता, पिता और भाई आपहीके रुप हैं |
सबके बीचमें आपका रुप हैं |
आप परब्रह्म हो और आपके बीचमें सबके रुप हैं || ७५ ||


त्वमक्षरं परं ज्योतिस्त्वमेव पुरुषोत्तमः |
त्वमेव तारकं ब्रह्म त्वत्तोऽन्यन्नैव किञ्चन || ७६ ||

हे रामचंद्रजी, आपही अविनाशी और परम प्रकाशमान हैं, आपही पुरुषोत्तम हैं,
आपही संसारसागरसे तारनेवाले, ब्रह्मरुपी नौकास्वरुप हैं,
आपके सिवाय और कुछ नहीं || ७६ ||


शान्तं सर्वगतं सूक्ष्मं परं ब्रह्मसनातमम् |
राजीवलोचनं रामं प्रणमामि जगत्पतिम् || ७७ ||

निर्मल आनंदस्वरुप, सर्वव्यापी, सुक्ष्म, वेद और जीवात्मासे परे ब्रह्म, आदि मध्य और अंतसे रहित, कमलके समान नेत्रवाले जगत्के स्वामी
श्री रामचंद्रजीको मैं प्रणाम करता हूं || ७७ ||


|| श्री वेदव्यास उवाच ||

ततः प्रसन्नः श्रीरामः प्रोवाच मुनिपुंगवम् |
तुष्टोस्मि मुनिशार्दूल वृणीष्व वरमुत्तमम् || ७८ ||

व्यासजी बोले, इस भांतिसे श्रीनारदजीने जब स्तुति की तब प्रसन्न होकर श्री रामचंद्रजी नारदजीसे बोले कि, हे मुनिश्रेष्ठ नारदजी, मैं तुमसे प्रसन्न हुआ हूं अब तुम उत्तम वर मांगो || ७८ ||


|| श्री नारद उवाच ||

यदि तुष्टोऽसि सर्वज्ञ श्रीराम करुणानिधे |
त्वन्मूर्तिदर्शनेनैव कृतार्थाऽहं ममेप्सितम् || ७९ ||

नारदजीने कहा, हे सर्वज्ञ, हे श्रीराम, हे करुणानिधान, जो आप प्रसन्न है,
तो मैं आपकी प्रसन्न मूर्तिका दर्शन करके कृतार्थ हुआ और
मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया || ७९ ||


धन्योऽहं कृत्कृत्योऽहं पुण्योऽहं पुरुषोत्तम |
अद्य मे सफलं जन्म जीवितं सफलं च मे || ८० ||

हे पुरुषोत्तम श्री रामचंद्रजी, मैं धन्य हूं, मैंने समस्त शुभ कर्म कर लिये,
मैं पुण्य रुपी हो गया, आज मेरा जन्म और
जीवन सफल हुआ || ८० ||


अद्य मे सफलं ज्ञानमद्य मे सफलं तपः |
अद्य मे सफलो यज्ञत्स्वत्पदाम्भोजदर्शनात् || ८१ ||

हे श्रीराम, आपके चरणकमलोंका दर्शन करनेसे आप मेरा ज्ञान सफल हुआ,
आज मेरा तप सफल हुआ और आज मेरा यज्ञ सफल हुआ || ८१ ||


अद्य से सफलं सर्वं त्वन्नास्मरणं तथा |
त्वत्पादाम्भोरुहद्वद्धे सद्भक्ति देहि राघव || ८२ ||

हे राघव, आज मेरे सभी कार्य सफल हुए और आपके नामका स्मरण भी सफल हुआ अब आप अपने चरणकमलोंसे सद्भक्ति दीजिये || ८२ ||


ततः परमसंप्रीतो रामः प्राह स नारदम् || ८३ ||

तब परम प्रसन्न होकर श्री रामचंद्रजी नारदजीसे बोले || ८३ ||


|| श्री राम उवाच ||

मुनिवर्य महाभाग मुने त्विष्टं ददामिते |
यत्त्वया चेप्सितं सर्व मनसा तद्भविष्यति || ८४ ||

हे मुनियोंमें श्रेष्ठ महाभाग्यवान् नारदजी,
मैं तुम्हारे इष्टको देता हूं जो तुम्हाता मनोरथ है,
वह पूर्ण होगा || ८४ ||

|| नारद उवाच ||

वरं न याचे रघुनाथ युष्मत्पदाब्जभक्तिः सततं ममास्तु |
इदं प्रियं नाथ वरं प्रयच्छ पुनः पुनस्त्वामिदमेव याचे || ८५ ||

नारदजी बोले, हे रघुनाथजी, मैं धर्म, अर्थ काम और मोक्ष
इन चारों पदार्थोंका वर नहीं मांगता हूं,
हे नाथ, मैं आपसे बारंबार यही याचना करता हूं कि,
आपके दोनों चरणकमलोंमें मेरी भक्ति बनी रहे यही आप मुझे वर दीजिये || ८५ ||


|| श्री वेदव्यास उवाच ||

इत्येवमीडितो रामः प्रादात्तस्मै वरान्तरम् |
विरराम महातेजाः सच्चिदानन्दविग्रहः || ८६ ||

श्री व्यासजीने कहा, इस स्वतवराजसे प्रसन्न हो नारदजीको अपने चरणोंकी
सद्भक्तिका वर देकर सच्चिदानन्दस्वरुपी महातेजस्सवी श्री रामचंद्रजीने वरांतर दे शांतभावको धारण किया || ८६ ||


अद्वैतममलं ज्ञानं तन्नामस्मरणं तथा |
अन्तर्धानं जगामाथ पुरतस्तस्य राघवः || ८७ ||

वरांतरको कहते हैं, अद्वैत निर्मल ज्ञान और श्रीराम नामका स्मरण यह दोनों
वर देकर नारदजीके सन्मुखसे श्री रामचंद्रजी अंतर्ध्यान होगये || ८७ ||


इति श्रीरघुनाथस्य स्तवराजमनुत्तमम् |
सर्वसौभाग्यसंपत्तिदायकं मुक्तिदं शुभम् || ८८ ||

इसके होनेसे यहां स्तवराजकी पूर्ति जानी जाती है |
यह परमोत्तम श्री रामचंद्रजीका स्तवराज सर्व सौभाग्यको देनेवाल,
धनको देनेवाला और मुक्तिको देनेवाला मंगलमय है || ८८ ||


कथितं ब्रह्मपुत्रेण वेदानां सारमुत्तमम् |
गुह्याद्गुह्यतरं दिव्यं तव स्नेहात्प्रकीर्तितम् || ८९ ||

श्री ब्रह्माजीके पुत्र श्री नारायणजीका कहा वेदोंका सार उपनिषदोंसे भी
उत्तम और गुप्तसे भी गुप्त दिव्य स्वतवराजको
मैंने तुम्हारे स्नेहसे वर्णन किया है || ८९ ||


यः पठेच्छृणृयाद्वापि त्रिसन्ध्यं श्रद्धायान्वितः |
ब्रह्महत्यादिपापानि तत्समानि बहूनि च || ९० ||

जो मनुष्य प्रातःकाल, मध्याह्न समय और सायंकालमें श्रद्धाके साथ इस स्तवराजका पाठ करता है उसके ब्रह्महत्यादिक पाप और
ब्रह्महत्याके समान अनेक उग्रपाप || ९० ||


स्वर्णस्तेयसुरापानगुरुतल्पायुतानि च |
गोवधाद्युपपापानि ह्यनृतात्सम्भवानि च ||
सर्वैः प्रमुच्यते पापैः कल्पायुतशतोद्भवैः || ९१ ||

एवं सुवर्ण चुरानेसे, मदिरा पीनेसे, दशहाजर वार गुरुदेवकी पत्नीके साथ एक शय्यापर शयन करनेसे उप्तन्न हुए पाप, गोवघ आदि उपपाप,
मिथ्या भाषणसे उत्पन्न हुए पाप और
दश कल्पोंके उत्पन्न हुए समस्त प्रकारके पाप नष्ट हो जाते हैं || ९१ ||


मानसं वाचिकं पापं कर्मणा समुपार्जितम् |
श्री रामस्मरणेनैव तत्क्षणान्नश्यति ध्रुवम् || ९२ ||

मन, वचन और कर्मसे उत्पन्न हुए पाप 
श्री रामनामके स्मरण करतेही निश्चय नष्ट हो जाते हैं || ९२ ||


इदं सत्यमिदं सत्यं सत्यमेतदिहोच्यते || ९३ || 

यह सत्य है, सत्य है, सत्यही कहा है || ९३ ||


रामः सत्यं परं ब्रह्म रामात्किंचिन्न विद्यते |
तस्माद्रामस्य रुपोऽयं सत्यं सत्यमिदं जगत् || ९४ ||

श्रीराम सत्य हैं, परब्रह्म है, श्रीरामसे भिन्न कुछ नहीं है,
अतएव यह जगत सत्य ही श्रीरामका हीं रुप है || ९४ ||


|| सूत उवाच ||

श्री रामचन्द्र रघुपुंगव राजवर्य राजेंद्र राम रघुनायक राघवेश |
राजाधिराज रघुनन्दन रामभद्र दासोऽहमद्य भवतः शरणागतोऽस्मि || ९५ ||

व्यासजीके इतना कहनेपर सूतजी बोले, हे श्रीरामचंद्र, हे रघुकुलभूषण,
हे राजाओंके मुकुटमणि, हे राजेन्द्र, हे राम, हे रघुनायक, हे राघवेश, हे राजाधिराज,
हे रघुनंदन, हे रामभद्र, मैं दासभावसे आज आपकी शरण होता हूं || ९५ ||


वैदेहीसहितं सुरसद्रुमतले हैमें महामण्डपे 
मध्येपुष्पकमासने मणिमये वीरासने संस्थितम् |
अग्रे वाचयति प्रभञ्जनसुते तत्त्वं मुनीन्द्रैःपरं 
व्याख्यातं भरतादिभिः परिवृतंरामं भजे श्यामलम् || ९६ ||

श्री रामचंद्रजी जानकीजीके साथ, कल्पवृक्षके निचे सुवर्णके महामण्डपके बीचमें,
मणियोंसे जडे पुष्पकविमानमें वीरासनसे विराजमान हैं उनके दहिने ओर भरतजी
और बाई ओर शत्रुध्नजी खडे चैवर डुला रहे हैं,
एवं लक्ष्मणजी छत्र धारण किये खडे हैं,
और सामने हनुमानजी मुनिराजोंकी वर्णित रामयश
 प्रकाशिनि स्तुति गाय कर सबकोसुना रहे हैं,
इस प्रकारसे श्यामल शरीर श्रीरामचंद्रजीका मैं भजन करता हूं || ९६ ||


रामं रत्नकिरीटकुण्डलयुतं केयूरहारान्वितं 
सीतालंकृतवामभागममलंसिंहासनस्थं विभूम् |
सुग्रीवाहिदरीश्वरैः सुरगणैः संसेव्यमानं सदा 
विश्वामित्रपराशरादिमुनिभिःसंस्तूयमानंप्रभुम् || ९७ ||

रत्नोंसे जेड हुए, किरीट, कुण्डल, बाजुबंध और हार पहने, निर्मल सिंहासनपर विराजमान, वामभागमें श्री जानकीजीसे शोभित, विश्वमें व्याप्त,
सुग्रीवादि वानरोकें स्वामी और देवताओंसे निरन्तर सेवित,
पराशय आदि मुनियोंने जिनकी स्तुति की है उन श्री रामचंद्रजीका मैं
भजन करता हूं || ९७ ||


सकलगुणनिधानं योगिभिस्तूयमानं भुजविजितविमानं राक्षसेन्द्रादिमानम् |
महित वृषभयानं सीतया शोभमानं स्मृतहृदयविमानं ब्रह्म रामाभिधानम् || ९८ ||

सकगुणोंके विधान, योगिराजोंसे स्तुतिको प्राप्त, भुजबलसे पुष्पक विमानको जीतनेवाले, रावण आदिके मारनेवाले, शिवजीसे पूजित,
श्री जानकीसे शोभित, मानरहित पुरुषोंके हृदयमें स्मृतिको प्राप्त करनेवाले,
ब्रह्मरुपी श्री रामचंद्रजीका मैं भजन करता हूं || ९८ ||


रघुवर तव मूर्तिर्मामके मानसाब्जे नरकगतिहरंते नामधेयं मुखे मे |
अनिशमतुलभक्त्या मस्तके त्वत्पदाब्जे भवजलनिधिमग्नं रक्ष मामार्त्त बन्धो  || ९९ ||

हे श्री रघुवर, आपकी श्यामसुंदर मूर्ति मेरी मनरुपी कमल में फुरती है,
नरकरुप दुर्गतिको नाश करनेवाला आपका नाम मेरे मुख में फुरता है,
निरंतर अतुल भक्तिके साथ मेरा मस्तक आपके चरणकमलोंमें नवता है,
उसपर आपके चरणकमल विराजमान हो |
हे आर्त्तजनबंधो, भवसागरमें डूबता हुए मेरी आप रक्षा कीजिये || ९९ ||


रामरत्नमहं वन्दे चित्रकूटपतिं हरिम् |
कौशल्याशुक्तिसम्भूतं जानकीकण्ठभूषणम् || १०० ||

तीनों तापोंके नाशक, चित्रकूटके स्वामी, कौशल्यारुपी सीपीसे उत्पन्न,
श्री जानकीजी के कंठके आभूषण,
रत्नरुपी श्री रामचंद्रजीको मैं नमस्कार करता हूं || १०० ||


|| इति श्री सनत्कुमारसंहितायां नारदोक्तः श्री रामस्तवराजः सम्पूर्णः ||

|| इति श्री सनत्कुमारसंहिताके अंतर्गत श्रीनारदजीकथित श्रीरामचंद्रजीका स्तवराज समाप्त हुआ ||  
karmkandbyanandpathak

नमस्ते मेरा नाम आनंद कुमार हर्षद भाई पाठक है । मैंने संस्कृत पाठशाला में अभ्यास कर (B.A-M.A) शास्त्री - आचार्य की पदवी प्राप्त की हुईं है । ।। मेरा परिचय ।। आनंद पाठक (आचार्य) ( साहित्याचार्य ) ब्रह्मरत्न अवार्ड विजेता (2015) B.a-M.a ( शास्त्री - आचार्य ) कर्मकांड भूषण - कर्मकांड विशारद ज्योतिष भूषण - ज्योतिष विशारद

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